Thursday 14 April 2016

सर आइज़क न्यूटन (Sir Isaac Newton)

दुनिया को  गुरुत्वाकर्षण  का  सिद्धांत  देने वाले  Sir Issac Newton शुरुआती  दिनों  में  ठीक  प्रकार से  बोल  भी  नहीं  पाते  थे . वे स्वभाव से काफी गुस्सैल  थे  और  लोगों  से  कम  ही  वास्ता रखते  थे . उनके  इसी  व्यव्हार  के  कारण  उनके  मित्र  भी  न के  बराबर थे . newton अपने  विचार  भी  सही  ढंग  से  व्यक्त  नहीं  कर  पाते   थे ,वह अपने  उपलब्धियों  या  खोज  को  बताने  में  संकोच  करते   कि  कहीं  वह  हंसी के  पात्र  न  बन  जाएं . शुरुआती  दिनों  में  Newton कई  प्रकार  के प्रयोग  करते  रहते  थे .Newton के  व्यव्हार  के कारण  उन्हें  सनकी  और  पागल समझा  गया  पर  लोगों की परवाह किये बगैर वे अपने शोध में लगे रहे और अंततः एक महान  वैज्ञानिक  बनकर उभरे और एक  genius के रूप में विख्यात हुए। आईये हम उनकी इस कामयाबी से आपको परिचित करवाते हैं|

महान वैज्ञानिक - सर आइज़क न्यूटन (Sir Isaac Newton) [जन्म : 25 दिसंबर 1642 -     मृत्यु : 20 मार्च 1727]
न्यूटन का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. कोई बच्चा जब विज्ञान की दुनिया में कदम रखता है तो जिस वैज्ञानिक से सबसे पहले वह परिचित होता है वही वैज्ञानिक है सर आइज़क न्यूटन. वह वैज्ञानिक जो भौतिकविद, गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, फिलास्फर, अल्केमिस्ट, धर्मशास्त्री सभी कुछ था. न्यूटन के सिद्धांतों ने संसार को नए रूप में देखने के परदे खोल दिए. और आधुनिक भौतिकी व इंजीनियरिंग की बुनियाद रखी.

यांत्रिक भौतिकी (Mechanical Physics) की शुरुआत न्यूटन के गति के तीन नियमों से होती है. साइकिल से लेकर रॉकेट तक के निर्माण में कहीं न कहीं ये नियम जुड़े रहते हैं.

वैज्ञानिक तर्कशास्त्र की आधारशिला उसने चार नियमों द्वारा रखी, जो इस प्रकार हैं :
(1) किसी प्राकृतिक घटना के पीछे एक और केवल एक पूर्णतः सत्य कारण होता है.
(2) एक तरह की घटनाओं के लिए एक ही प्रकार के कारण होते हैं.
(3) वस्तुओं के गुण सार्वत्रिक रूप से हर जगह समान होते हैं.
(4) किसी घटना से निकाले गए निष्कर्ष तब तक सत्य मानने चाहिए जब तक कोई अन्य घटना उन्हें ग़लत न सिद्ध कर दे.

न्यूटन ने बताया की चीज़ों के पृथ्वी पर गिरने, चंद्रमा के पृथ्वी के परितः परिक्रमण, और ग्रहों के सूर्ये के परितः परिक्रमण के पीछे एक ही कारक है जो गुरुत्वाकर्षण का सर्वव्याप्त बल है.साथ ही पहली बार द्रव्यमान और भार के बीच अन्तर बताया. प्रकाश के क्षेत्र में काम करते हुए न्यूटन ने बताया की सफ़ेद प्रकाश दरअसल कई रंगों के प्रकाश का मिश्रण होता है. और साथ ही ये भी बताया कि प्रकाश बहुत सूक्ष्म कणिकाओं का तेज़ प्रवाह होता है. हालांकि हाइगेन्स तथा अन्य वैज्ञानिकों ने कणिका सिद्धांत को नकारते हुए तरंग सिद्धांत पर बल दिया. किंतु आज के परिपेक्ष्य में प्लांक की परिकल्पना तथा प्रकाश विधुत प्रभाव ने न्यूटन सिद्धांत को काफ़ी हद तक सही ठहरा दिया है. टेलेस्कोप के रंग दोष को दूर करने के लिए न्यूटन ने परावर्तक दूरदर्शी का आविष्कार किया.

गणित की सर्वाधिक उपयोगी शाखा कैलकुलस (Calculus) के बारे में इतिहासकारों का मानना है कि इसका आविष्कार न्यूटन और लाइब्निज़ (Leibniz) दोनों ने अपने अपने तरीके से किया था. हलाँकि इसके असली आविष्कारक के लिए दोनों में कई वर्षों तक विवाद भी चलता रहा.

माध्यमिक स्तर पर पढ़ाई जाने वाली द्विपद प्रमेय भी न्यूटन के दिमाग की उपज है. पाई का मान निकालने के लिए भी न्यूटन ने नया फार्मूला दिया. किसी भी तरह की समीकरण के आंकिक हल के लिए भी न्यूटन ने एक फार्मूला दिया जो न्यूटन राफ्सन फार्मूला के नाम से जाना जाता है. कंप्यूटर की गणनाओं में यह काफ़ी उपयोगी सिद्ध हुआ है.

आधुनिक कैलेंडर के अनुसार न्यूटन का जन्म 25 दिसम्बर 1642 को हुआ था. उसके जन्म से तीन माह पहले ही पिता की मृत्य हो गई थी. बाद में उसकी माँ ने दूसरा विवाह कर लिया था. वह जीवन भर अविवाहित रहा. शायद इसी अकेलेपन ने उसे अतिवादिता का शिकार बना दिया था. वह जितना अपने मित्रों को टूट कर चाहता था, विरोधियों के लिए उतना ही आक्रामक था.

उस समय के अन्य वैज्ञानिकों रॉबर्ट हुक (Robert Hooke), क्रिस्टियन हाइगेन्स (Christiaan Huygens), विल्हेम लाइब्निज़ (Wilhelm Leibniz) और जॉन फ्लाम्स्टीड (John Flamsteed) के साथ उसका विवाद जगप्रसिद्ध है. धार्मिक रूप से वह बाइबिल तथा ईश्वर में अटूट विश्वास रखता था किंतु ईसाइयों की आम मान्यता ट्रिनिटी में उसकी आस्था न थी. उसका माना था कि ट्रिनिटी (Trinity) को मानने वालों ने मूल बाइबिल में उलट फेर किया है. (ट्रिनिटी - जीसस को ईश्वर का बेटा मानना.)
न्यूटन की पुस्तक फिलास्फिया प्रिन्सिपिया मैथेमैटिका को अब तक का महानतम लिखित वैज्ञानिक कार्य माना जाता है.

सन 2005 में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे ने न्यूटन को सर्वाधिक लोकप्रिय वैज्ञानिक ठहराया है.

              न्यूटन की खोज :
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का पता लगाने की घटना, साढ़े तीन सौ साल पुरानी, 1660 के दशक के मध्य की घटना है।
विलियम स्ट्यूक्ली ने लिखा है कि 1726 की बसंत में एक दिन एक सेब के पेड़ की छाया में न्यूटन ने उन्हें इस घटना के बारे में बताया। तब न्यूटन केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। प्लेग फैलने के कारण विश्वविद्यालय के बंद होने पर न्यूटन उत्तरी इंग्लैंड में अपने घर चले गए।
न्यूटन ने स्ट्यूक्ली को बताया कि जिस तरह वह उस दिन उस सेब के पेड़ के नीचे बैठे थे, उसी तरह की अवस्था में वो एक पेड़ के नीचे बैठे सोच रहे थे जब एक सेब गिरा।
स्ट्यूक्ली लिखते हैं- 'न्यूटन बैठे सोच रहे थे। जब एक सेब गिरा, उन्होंने सोचा कि ये सेब सीधा ही क्यों गिरा, अगल-बगल या ऊपर क्यों नहीं गिरा...इसका मतलब धरती उसे खींच रही है, मतलब उसमें आकर्षण है।'
वैसे रॉयल सोसायटी की लाइब्रेरी के प्रमुख कीथ मूर का कहना है कि सेब के गिरने की कहानी शायद एक कहानी ही है जिसे न्यूटन ने बाद में आम लोगों को समझाने के लिए बना लिया।
कीथ मूर कहते हैं, 'न्यूटन ने सेब गिरने की कहानी का सहारा आम लोगों को गुरुत्वाकर्षण क्या है ये समझाने के लिए लिया और सेब के सिर पर गिरने की कहानी तो और भी बाद में बनाई गई।'
                रॉयल सोसायटी :
रॉयल सोसायटी दुनिया में वैज्ञानिकों की सबसे पुरानी संस्था है जिसका गठन 1660 में विज्ञान के प्रसार के उद्देश्य से किया गया था।
संस्था अपनी 350वीं वर्षगाँठ पर 60 से अधिक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक दस्तावेजों को वेबसाइट पर सार्वजनिक कर रही है। सोसायटी ने अपनी वेबसाइट पर न्यूटन के प्रतिद्वंद्वी वैज्ञानिक रॉबर्ट हुक के भी कुछ दस्तावेजों को प्रकाशित किया है। ये दस्तावेज कई सौ वर्षों तक गुम रहने के बाद हाल ही में इंग्लैंड में एक घर से बरामद हुए हैं।

Wednesday 13 April 2016

अल्फ्रेड नोबेल (Alfred Nobel)

अल्फ्रेड नोबेल का जन्म 1833 में स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में हुआ था। वह अपने जीवन के प्रारंभ से ही खोजी स्वभाव के थे।

अल्फ्रेंड पढऩे लिखने में अधिक रूचि नहीं लेते थे, लेकिन उन्हें नई खोज करने का बेहद शौक था। अल्फ्रेंड के पिता विस्फोटकों के जाने माने विशेषज्ञ थे। उनका पुश्तैनी गांव नोविलोव था।अल्फ्रेंड के पिता एक प्रसिद्घ व्यापारी थे। एक बार उन्हें अपने व्यापार में घाटा आ गया। तब वह स्वीडन को छोडक़र रूस चले गये। वहां जाने पर उनका व्यापार पुन: चल निकला और वह वहीं बस गये। लेकिन उनकी कई संतानों में से एक बेटा अल्फ्रेंड नोबेल रूस छोडक़र पुन: स्वीडन आ गये। यहां आकर उसने भी अपना बिजनैस किया जिससे वे बहुत बड़े व्यापारी बन गये। अल्फ्रेड व्यापारी के साथ साथ एक अच्छे वैज्ञानिक भी थे। उनके साथ यह अद्भुत संयोग था कि वह व्यापारी भी थे और वैज्ञानिक भी।
             अल्फ्रेंड नोबेल ने अपने खोजी दिमाग से एक ज्वलनशील पदार्थ इग्नाहूटर की खोज की जिससे उनका नाम दूर दूर तक फैल गया।
बाद में उन्होंने पहाड़ों को तोडऩे वाले विस्फोटक पदार्थ डायनामाइट की खोज की और भरपूर प्रसिद्धि प्राप्त की।
अल्फ्रेंड को घूमने फिरने में बड़ा आनंद और सुख मिलता था। यूरोप में उन्हें प्रकृति प्रेमी और सबसे बड़े धनी के रूप में लोग जानते थे।
उन्होंने प्रकृति के दृश्यों को अपनी नजरों में कैद करने के लिए दूर दूर की यात्राएं कीं।
अल्फ्रेड नोबेल आजीवन अविवाहित रहे थे।
प्रतिभा उनके सिर चढक़र बोल रही थी और नियति उनसे कोई अनोखा और अद्भुत कार्य कराने के लिए दबाव बना रही थी।
इसलिए उन्होंने अपनी अथाह संपत्ति के सुनियोजन के लिए अपने जीवन काल में एक वसीयत लिखी। जिसमें उन्होंने अपनी संपत्ति के निपटारे का उल्लेख किया।
वसीयत में उन्होंने लिखा कि उनकी संपत्ति की देखभाल एक ट्रस्ट करेगा। वह ट्रस्ट इस धन को व्यापार में लगाएगा, और उससे प्राप्त आय को विश्व के उन व्यक्तियों को पुरस्कार स्वरूप प्रदान करेगा जो भौतिकी, रसायन,चिकित्सा,अर्थव्यवस्था, साहित्य और विश्वशांति के क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं। उनकी मृत्यु के उपरांत उनकी इच्छा के अनुसार एक फाउंडेशन का गठन किया गया। जिसने 29 जून 1900 से अपना कार्य करना आरंभ किया। अल्फ्रेंड नोबेल के परोपकारी और गौरवमयी जीवन का अंत दस दिसंबर 1896 को इटली के सानरेमो नगर में हो गया था।
जाने से पहले उन्होंने अपनी अन्त:प्रेरणा से संसार के लिए एक ज्योति जलाई और लोगों को प्रेरित किया कि यदि आप विश्व शांति के लिए या उपरोक्त वर्णित अन्य क्षेत्रों में विशेष कार्य करेंगे तो आप भी मेरी संपत्ति के निश्चित अंश के मेरे बाद मालिक होंगे।
एक तरह से नोबेल की यह वसीयत अनन्तकाल तक के लिए है। यह विश्व की अनोखी वसीयत है जिसका दावेदार दुनिया का हर आदमी हो सकता है। यही कारण है कि लोग पुरस्कार की चाह में सर्वोत्कृष्ट मानवीय कार्य करने का प्रयास करते रहते हैं। लोगों का प्रयास होता है कि कुछ न कुछ ऐसा किया जाए जो मानवता के हित में हो और जो उसे नोबेल पुरस्कार का पात्र बना दे।अल्फ्रेंड नोबेल की संपत्ति का मूल्यांकन जून 1900 में 3.1 करोड़ क्रोनर था। एक क्रोनर 50 रूपये का था। भारतीय मुद्रा में नोबेल पुरस्कार की राशि पांच करोड रूपये है। अभी तक 650 से अधिक लोग नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। अल्फ्रेड नोबेल की पुण्यतिथि पर प्रतिवर्ष दस दिसंबर को स्वीडन व नार्वे दोनों देशों में यह पुरस्कार दिया जाता है।
1969 से इस पुरस्कार में आर्थिक क्षेत्र में की गयी विशेष सेवाओं वाले व्यक्तियों को भी सम्मिलित कर लिया गया है। इस पुरस्कार से सम्मानित विभूतियां सचमुच मानवता की धरोहर होती हैं।

एक याद डॉ. कलाम के नाम

मेरी क्या जुर्रत जो उस इंसान के बारे में एक शब्द भी लिख सकुं जिसके विचार ,सोंच और समझ को पुरी दुनिया सलाम करती है| विनम्र दिल वाले जिस इंसान में बच्चों के लिए कभी न खत्म होने वाला प्यार था। जिसकी कुछ नया जानने के लिए कभी न खत्म होने वाली खोज जिसे दूसरों से अलग करती है।
वो इंसान कोई और नहीं वही है मिसाइल मैन, भारत रत्न , पिपुल्स पर्सिडेंट,
और एपीजे अब्दुल कलाम.

एक याद डॉ. कलाम के नाम
        

राष्ट्रपति बनाने ढूंढना पड़ा था डॉ. कलाम को, तोड़ी राष्ट्रपति भवन की परंपराएं

भारत का राष्ट्रपति बनने के लिए बड़े-बड़े नेता एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं। राजनीतिक पार्टियों के गुणा-भाग चलते हैं सो अलग। जिस समय डॉ. कलाम को राष्ट्रपति बनाने की चर्चा चली इसकी उन्हें भनक तक नहीं थी। कलाम उस दौरान चेन्नई विश्वविद्यालय के होस्टल के एक छोटे-से कमरे में रह रहे थे। एनडीए सरकार ने फैसला किया कि कलाम राष्ट्रपति पद के उनके उम्मीदवार होंगे। इस बात की सूचना देने के लिए उन्हें ढूंढना पड़ा था। कलाम ने राष्ट्रपति बनने के बाद राष्ट्रपति भवन की कई परंपराओं को बंद करा दिया।

अपनी पुस्तक टर्निंग प्वाइंट्स: ए जर्नी थ्रू चैलेंजेज में उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि वह कैसे भारत के 11वें राष्ट्रपति बनें। उन्होंने लिखा है कि अन्ना विश्वविद्यालय के सुंदर वातावरण में 10 जून 2002 की सुबह और दिनों की तरह ही थी, जहां मैंने दिसम्बर 2001 से काम करना शुरू किया था। विश्वविद्यालय के बड़े और शांत परिसर में वहां के प्रोफेसरों और शोध विद्यार्थियों के साथ काम करते हुए मेरा अच्छा समय बित रहा था।

मेरे क्लास में केवल 60 बच्चों के बैठने की ही व्यवस्था थी, लेकिन उसमें करीब 350 से ज्यादा छात्र बैठा करते थे और कोई ऐसा तरीका भी नहीं था जिससे उनको रोका जा सके। मेरा काम परास्नातक के युवा छात्रों की सोच को जानना और मैंने जो राष्ट्रीय स्तर पर काम किए उनके तजुर्बों को उनसे साझा करना था। मुझे अपने 10 लेक्चर के जरिए उनको यह समझाना था कि समाज को बदलने के लिए तकनीक का प्रयोग कैसे किया जा सकता है।

और क्या लिखा है डॉ. कलाम ने

वह मेरा नौवां व्याख्यान था जिसका शीर्षक 'विजन टू मिशन' था जिसमें कुछ मामलों का अध्ययन भी शामिल था। मैंने जैसे ही अपना व्याख्यान खत्म किया मुझे कई सवालों के जवाब देने पड़े। इसके अलावा मेरे क्लास की अवधि 1 घंटे से बढ़ाकर 2 घंटे करनी पड़ी। इसके बाद मैं और दिनों की तरह अपने कार्यालय में आ गया और शोध छात्रों के साथ बैठकर खाना खाया। हमारा कुक प्रसंगम ने हमें अच्छा खाना खिलाया।

खाने के बाद मैं अपने दूसरे क्लास के लिए गया और फिर शाम को वापस अपने कमरे में आ गया। मैं जब वापस आ रहा था तो उसी समय विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर प्रोफेसर ए कलानिधि पीछे से आए और मेरे साथ चलने लगे। उन्होंने कहा कि आज सुबह से ही मेरे कार्यालय कई फोन आ चुके हैं और कोई है जो आपसे बात करने के लिए काफी उत्सुक है। मैं जैसे ही अपने कमरे में पहुंचा, मैंने पाया कि मेरा फोन बज रहा था। मैंने फोन उठाया तो उधर से आवाज आई, 'प्रधानमंत्री आपसे बात करना चाहते हैं।'

अभी मैं फोन पर प्रधानमंत्री से बात करने का इंतजार कर रहा था इसी दौरान आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु ने मेरे सेलफोन पर फोन किया। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री मुझे फोन करने वाले हैं। उन्होंने यह भी कहा, 'कृपया ना मत कहिएगा।' जब मैं नायडु से बात कर रहा था तभी फोन पर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आवाज सुनाई दी। उन्होंने पूछा, 'कलाम, आपका शैक्षणिक जीवन कैसा है?' मैंने जवाब दिया, 'बिल्कुल अच्छा।'

वाजपेयी जी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमारे पास आपके लिए एक जरूरी खबर है। मैं अभी एनडीए के सभी राजनीतिक पार्टी के नेताओं की विशेष बैठक से होकर आ रहा हूं। हमने निर्णय लिया है कि देश को राष्ट्रपति के रूप में आपकी जरूरत है। मुझे आपकी सहमति के रूप में केवह 'हां' चाहिए 'ना' नहीं।

हम सर्वसम्मति से करेंगे काम

कमरे में आने के बाद मुझे अभी बैठने का मौका भी नहीं मिला था। मेरे सामने भविष्य की अलग-अलग तस्वीरें दिखाई दे रही थीं। उनमें से एक यह था कि मैं शिक्षकों और छात्रों से घिरा हुआ हूं। मैंने वाजपेयी जी से निर्णय लेने के लिए दो घंटे का समय मांगा और कहा कि मेरे नाम पर राजनीतिक पार्टियों की सहमति भी होनी चाहिए। तो उन्होंने कहा कि पहले आप सहमत होइए, फिर हम सर्वसम्मति पर काम करेंगे।

इन दो घंटों के दरमियान मैं अपने करीबी मित्रों को 30 फोन कॉल किए जिनमें कुछ शैक्षणिक क्षेत्र से, कुछ नागरिक सेवाओं और कुछ राजनीति के क्षेत्र से जुड़े हुए थे। उस वक्त मेरे सामने दो दृश्य उभर रहे थे। पहला यह कि मैं अपने शैक्षणिक जीवन का आनंद ले रहा था और यह मेरा शौक भी था उसे मैं छोड़ना नहीं चाहता था। दूसरा यह कि भारत 2020 विजन को जनता और संसद के सामने रखने का इससे बढ़िया अवसर नहीं मुझे फिर नहीं मिलने वाला था।

दो घंटे के बाद मैंने प्रधानमंत्री जी से बात की और कहा, 'वाजपेयी जी, मैं एक विशेष उद्देश्य के लिए अपनी स्वीकृति दे रहा हूं और मैं सभी पार्टियों का प्रत्याशी बनना चाहूंगा।' उन्होंने कहा, 'ठीक है, हम इस पर काम करेंगे, धन्यवाद।' करीब 15 मिनट में ही यह संदेश पूरे देश में फैल गया और मेरे पास ढेर सारे फोन आने लगे। मेरी सुरक्षा बढ़ा दी गई और ढेर सारे लोग मुझसे मिलने के लिए मेरे कमरे में जमा हो गए।

पहली बार मीडिया से मिले

राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के रूप में अपना आवेदन करने के बाद 18 जून को जब मैं पहली बार मीडिया से मुखातिब हुआ तो मुझसे कई तरह के सवाल पूछे गए। इसमें गुजरात दंगे और अयोध्या में राम मंदिर बनाने के सवाल भी शामिल थे। राष्ट्रपति के तौर पर मेरा देश के लिए क्या विजन होगा इस पर भी सवाल पूछे गए।

इन सभी मुद्दों लिए मैंने शिक्षा और विकास के रास्ते ही समाधान की बात कही। चेन्नई से जब मैं 10 जुलाई को दिल्ली आया तो यहां तैयारियां पूरे जोर से चल रही थीं। बीजेपी के प्रमोद महाजन मेरे चुनाव एजेंट थे। मेरा फ्लैट बहुत ज्यादा बड़ा तो नहीं था लेकिन सुविधाजनक जरूर था।

मैंने अपने हॉल में ही अपना काम शुरू कर दिया और कुछ समय बाद वहां एक इलेक्ट्रानिक कैंप कार्यालय बन गया। मैंने लोकसभा और राज्यसभा के करीब 800 सांसदों को बतौर राष्ट्रपति देश के प्रति मेरा क्या नजरिए रहेगा उससे अवगत कराया और मुझे वोट करने की अपील की। इसका नतीजा यह हुआ कि मुझे बड़े अंतर से 18 जुलाई को राष्ट्रपति चुन लिया गया।

सामने थी सबसे बड़ी समस्या

इसके बाद मेरे सामने एक नई समस्या खड़ी हो गई। 25 जुलाई को होने वाले शपथ ग्रहण समारोह के दौरान अतिथियों की सूची बनाने में मुझे काफी दिक्कत हुई। संसद के केंद्रीय हॉल में केवल एक हजार लोगों की व्यवस्था थी। इनमें से सभी सांसदों, राजनयिकों और पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के अतिथियों की संख्या मिलाने के बाद केवल 100 अतिरिक्त लोगों की जगह वहां बची थी।

हम इसको बढ़ाकर इसकी संख्या 150 तक ले गए। अब इन 150 लोगों में किसको शामिल करूं यह भी एक चुनौती थी। मेरे परिवार के लोगों की संख्या ही 37 थी। इसके बाद मेरे भौतिक के शिक्षक चिन्नादुरई, प्रोफेसर केवी पंडलई और इनके अलावा मेरे दोस्त कई अन्य प्रोफेसर, पत्रकार मित्र, नृत्यांगना मित्र, उद्योगपति और न जाने कितने ही लोग मेहमानों की सूची में शामिल थे।

इसके अलावा इनमें देश के सभी राज्यों से 100 बच्चों को भी शामिल किया गया जिनके लिए अलग से एक पंक्ति बनाई गई। वह दिन बहुत गरम था लेकिन सभी लोग औपचारिक परिधानों में ऐतिहासिक केंद्रीय हॉल में पहुंचे और मेरे शपथ ग्रहण समारोह का हिस्सा बने।

देर से खाते थे खाना, कई प्रथाएं कराई बंद

डॉ. कलाम रात का खाना देरी से खाया करते थे। राष्ट्रपति के प्रोटोकाल के हिसाब से जब तक वह भोजन नहीं कर लें तब तक कोई भोजन नहीं करता था। जब कलाम राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इस प्रथा को बंद करवा दिया। उनके लिए महज एक रसोईया रात को देर तक जागता था। वह उन्हें खाना खिलाकर सो जाता था। इसके बाद उसकी दूसरे दिन सुबह की छुट्टी होती थी।

जूते कभी नहीं बंधवाए

उन्होंने राष्ट्रपति भवन में महामहिम के जूते के बंद बांधने की परंपरा भी बंद कराई। जब पहली बार डॉ. कलाम के जूते के बंद बांधने एक कर्मचारी पहुंचा तो वे बेहद नाराज हुए और कहा कि वे आज तक अपने जूते के बंद खुद ही बांधते आए हैं और आगे भी बांधेंगे।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर

जन्म: 14 अप्रैल, 1891
निधन: 6 दिसंबर, 1956

उपलब्धियां: स्वतंत्र भारत के संविधान की रचना करने के लिए संविधान सभा द्वारा गठित ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष चुने गए, भारत के प्रथम कानून मंत्री, 1990 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया

डॉ. भीमराव अम्बेडकर को भारत में दलितों और पिछड़े वर्ग के मसीहा के रूप में देखा जाता है। वह 1947 में स्वतंत्र भारत के संविधान की रचना के लिए संविधान सभा द्वारा गठित ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने संविधान को तैयार करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भीमराव अम्बेडकर भारत के प्रथम कानून मंत्री भी थे। देश के प्रति अतुलनीय सेवाओं के लिए वर्ष 1990 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

प्रारंभिक जीवन
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को म्हो (वर्तमान मध्य प्रदेश में) में हुआ था। वह रामजी और भीमाबाई सकपाल अम्बेडकर की चौदहवीं संतान थे। भीमराव अम्बेडकर अछूत महार जाति के थे। उनके पिता और दादा ब्रिटिश सेना में कार्यरत थे। उन दिनों सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि सेना के सारे कर्मचारी और उनके बच्चे शिक्षित किये जांए और इसके लिए एक विशेष विद्यालय चलाया गया। इस विशेष विद्यालय के कारण भीमराव की अच्छी शिक्षा सुनिश्चित हो गई अंन्यथा अपनी जाति के कारण वो इससे वंचित रह जाते।

भीमराव अम्बेडकर ने बचपन से ही जातिगत भेदभाव का अनुभव किया। भीमराव के पिता सेवानिवृत होने के बाद सतारा महाराष्ट्र में बस गए। भीमराव का स्थानीय विद्यालय में दाखिला हुआ। यहाँ उन्हें कक्षा के एक कोने में फर्श पर बैठना पड़ता था और अध्यापक उनकी कापियों को नहीं छूते थे। इन कठिनाइयों के बावजूद भीमराव ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और पूर्ण सफलता के साथ 1908 में बंबई विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। भीमराव अम्बेडकर ने आगे की शिक्षा हेतु एल्फिंस्टोन कॉलेज में दाखिला लिया। वर्ष 1912 में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और उन्हें बड़ौदा में एक नौकरी मिल गई।

वर्ष 1913 में भीमराव अम्बेडकर के पिता का निधन हो गया और उसी साल बड़ौदा के महाराजा ने उन्हें छात्रवत्ति से सम्मानित किया और आगे की पढाई के लिए अमेरिका भेजा। जुलाई 1913 में भीमराव न्यूयॉर्क पहुंचे। भीमराव को उनके जीवन में प्रथम बार महार होने की वजह से नीचा नहीं देखना पड़ा। उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से पढाई में मशगूल कर लिया और मास्टर ऑफ़ आर्ट्स की डिग्री और 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से अपने शोध ” नेशनल डिविडेंड फॉर इंडिया: अ हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी” के लिए दर्शनशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। डॉ. अम्बेडकर अर्थशास्त्र और राजनिति विज्ञान की पढाई के लिए अमेरिका से लंदन गए पर बड़ौदा सरकार ने उनकी छात्रवत्ति समाप्त कर दी और उन्हें वापस बुला लिया।

कैरियर
बड़ौदा के महाराज ने डॉ. अम्बेडकर को राजनितिक सचिव के रूप में नियुक्त किया। पर कोई भी उनके आदेशों को नहीं मानता था क्योंकि वो महार थे। भीमराव अम्बेडकर नवंबर 1924 को बम्बई लौट आये। कोल्हापुर के शाहू महाराज की सहायता से उन्होंने 31 जनवरी 1920 को एक साप्ताहिक अख़बार “मूकनायक” प्रारम्भ किया। महाराजा ने भी “अछूत” की कई बैठकों और सम्मेलनों को संचालित किया जिसे भीमराव ने सम्बोधित किया। सितम्बर 1920 में पर्याप्त धनराशि जमा करने के बाद अम्बेडकर अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए लंदन गए। वहां जाकर उन्होंने वकालत की पढाई की।

लंदन में अपनी पढ़ाई खत्म करने के पश्चात अम्बेडकर भारत लौट आये। जुलाई 1924 में उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की। इस सभा का उद्देश्य सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर दलितों का उत्थान कर भारतीय समाज में दूसरे वर्गों के समकक्ष लाना था। उन्होंने अछूतों को सार्वजनिक टंकी से पानी निकालने का अधिकार देने के लिए बम्बई के पास कोलाबा में चौदर टैंक पर महद मार्च का नेतृत्व किया और सार्वजनिक रूप से ‘मनुस्मृति’ की प्रतियां जलाईं।

1929 में अम्बेडकर ने भारत में एक जिम्मेदार भारत सरकार की स्थापना पर विचार करने के लिए ब्रिटिश कमीशन के साथ सहयोग का एक विवादास्पद निर्णय लिया। कांग्रेस ने आयोग का बहिष्कार करने का फैसला किया और आज़ाद भारत के एक संविधान के संस्करण की रूप रेखा तैयार की। कांग्रेस के संस्करण में दलित वर्गों के लिए कोई प्रावधान नहीं था। अम्बेडकर दलित वर्गों के अधिकारों की रक्षा के कारण कांग्रेस के लिए उलझन बन गए।

जब रामसे मैकडोनाल्ड ‘सांप्रदायिक अवार्ड’ के तहत दलित वर्गों के लिए एक अलग निर्वाचिका की घोषणा की गई तब गांधीजी इस फैसले के खिलाफ आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गए। नेताओं ने डॉ. अम्बेडकर को अपनी मांग को छोड़ने के लिए कहा। 24 सितम्बर 1932 को डॉ. अम्बेडकर और गांधीजी के बीच एक समझौता हुआ जो प्रशिद्ध ‘पूना संधि’ के नाम से जाना जाता है। इस संधि के अनुसार अलग निर्वाचिका की मांग को क्षेत्रीय विधान सभाओ और राज्यों की केंद्रीय परिषद में आरक्षित सीटों जैसी विशेष रियायतों के साथ बदल दिया गया।

डॉ. अम्बेडकर ने लंदन में तीनों राउंड टेबल कांफ्रेंस में भाग लिया और अछूतों के कल्याण के लिए जोरदार तरीके से अपनी बात रखी। इस बीच, ब्रिटिश सरकार ने 1937 में प्रांतीय चुनाव कराने का फैसला किया। डॉ बी.आर. अम्बेडकर ने बंबई प्रांत में चुनाव लड़ने के लिए अगस्त 1936 में “स्वतंत्र लेबर पार्टी ‘की स्थापना की। वह और उनकी पार्टी के कई उम्मीदवार बंबई विधान सभा के लिए चुने गए।

1937 में डॉ. अम्बेडकर ने कोंकण क्षेत्र में पट्टेदारी की “खोटी” प्रणाली को समाप्त करने के लिए एक विधेयक पास करवाया। इस के द्वारा भूपतियों की दासता और सरकार के गुलाम बनकर काम करने वाले महार की “वतन” प्रणाली को समाप्त किया गया। कृषि प्रधान बिल के एक खंड में दलित वर्गों को “हरिजन” के नाम से उल्लेखित किया गया। भीमराव ने अछूतों के लिए इस शीर्षक का जोरदार विरोध किया। उन्होंने कहा की यदि “अछूत” भगवान के लोग थे तो सभी दूसरे राक्षसों के लोग रहे होंगे। वह ऐसे किसी भी सन्दर्भ के खिलाफ थे। पर इंडियन राष्ट्रीय कांग्रेस हरिजन नाम रखने में सफल रही। अम्बेडकर को बहुत दुःख हुआ कि जिसके लिए उन्हें बुलाया गया उस बात को उन्हें कहने ही नहीं दिया गया

1947 में जब भारत आजाद हुआ तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. भीमराव अंबेडकर को कानून मंत्री के रूप में संसद से जुड़ने के लिए आमंत्रित किया। संविधान सभा की एक समिति को संविधान की रचना का काम सौंपा गया और डॉ. अम्बेडकर को इस समिति का अध्यक्ष चुना गया। फरवरी 1948 को डॉ. अम्बेडकर ने भारत के लोगों के समक्ष संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे 26 जनवरी 1949 को लागू किया गया।

अक्टूबर 1948 में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू कानून को सुव्यवस्थित करने की एक कोशिश में हिन्दू कोड बिल संविधान सभा में प्रस्तुत किया। बिल को लेकर कांग्रेस पार्टी में भी काफी मतभेद थे। बिल पर विचार के लिए इसे सितम्बर 1951 तक स्थगित कर दिया गया। बिल को पास करने के समय इसे छोटा कर दिया गया। अम्बेडकर ने उदास होकर कानून मंत्री के पद से त्याग पत्र दे दिया।

24 मई 1956 को बम्बई में बुद्ध जयंती के अवसर पर उन्होंने यह घोषणा की कि वह अक्टूबर में बौद्ध धर्म अपना लेंगे। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को गले लगा लिया। 6 दिसंबर 1956 को बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर परलोक सिधार गए।